Monday 27 June 2016

तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

अमावस  की  काली  रातों  में, जब दिल  का  दरवाजा  खुलता  है ,
जब  दर्द  की  प्याली  रातों  में,  गम  आंसूं के  संग  होते  हैं ,
जब  पिछवाड़े  के  कमरे  में , हम  निपट  अकेले  होते  हैं ,
जब  घड़ियाँ  टिक -टिक  चलती  हैं , सब  सोते  हैं , हम  रोते  हैं ,
जब  बार  बार  दोहराने  से  , सारी  यादें  चुक  जाती  हैं ,
जब  उंच -नीच  समझाने  में , माथे  की  नस  दुःख  जाती  हैं ,
तब  एक  पगली  लड़की  के  बिन  जीना  गद्दारी लगता  है ,
और  उस  पगली  लड़की  के  बिन  मरना  भी  भारी  लगता  है .


जब  पोथे    खाली  होते  हैं , जब  लोग सवाली  होते  हैं ,
जब  ग़ज़लें  रास  नहीं  आतीं , अफसाने  गाली  होते  हैं .
जब  बासी  फीकी  धुप  समेटें , दिन  जल्दी  ढल  जाता  है ,
जब  सूरज  का  लश्कर , छत  से  गलियों  में  देर  से  जाता  है ,
जब  जल्दी  घर  जाने  की  इच्छा , मन  ही  मन  घुट  जाती  है ,
जब  कॉलेज  से  घर  लाने  वाली , पहली  बस  छुट  जाती  है ,
जब  बेमन  से  खाना  खाने  पर , माँ   गुस्सा  हो  जाती  है ,
जब  लाख  मन  करने  पर  भी , पारो  पढने  आ  जाती  है ,
जब  अपना  हर  मनचाहा  काम   कोई  लाचारी  लगता  है ,
तब  एक  पगली  लड़की  के  बिन  जीना  गद्दारी  लगता   है ,
और  उस   पगली  लड़की  के  बिन  मरना  भी  भारी  लगता  है 


जब  कमरे  में  सन्नाटे  की  आवाज  सुनाई देती  है ,
जब  दर्पण  में  आँखों  के  नीचे  झाई  दिखाई  देती  है ,
जब  बड़की भाभी  कहती  हैं , कुछ  सेहत  का  भी  ध्यान  करो ,
क्या  लिखते  हो  दिनभर , कुछ  सपनों  का  भी  सम्मान  करो ,
जब  बाबा  वाली  बैठक  में  कुछ  रिश्ते  वाले  आते  हैं ,
जब  बाबा  हमें  बुलाते  हैं , हम  जाते  हैं , घबराते  हैं ,
जब  साड़ी  पहने  एक  लड़की  का,  एक  फोटो  लाया  जाता  है ,
जब  भाभी  हमें  मनाती  हैं , फोटो  दिखलाया  जाता  है ,
जब  सारे  घर  का   समझाना  हमको  फनकारी  लगता  है ,
तब  एक  पगली  लड़की  के  बिन  जीना  गद्दारी  लगता  है ,
और  उस  पगली  लड़की  के  बिन  मरना  भी  भारी  लगता  है 


दीदी  कहती  हैं  उस  पगली  लड़की  की   कुछ  औकात  नहीं ,
उसके  दिल  में  भैया  , तेरे  जैसे  प्यारे  जज्बात   नहीं ,
वो   पगली  लड़की  नौ  दिन  मेरे   लिए  भूखी   रहती  है ,
छुप  -छुप  सारे  व्रत  करती  है , पर  मुझसे  कभी  ना  कहती  है ,
जो  पगली  लड़की  कहती  है , मैं  प्यार  तुम्ही  से  करती  हूँ ,
लेकिन  मै  हूँ  मजबूर  बहुत , अम्मा -बाबा  से  डरती  हूँ ,
उस  पगली  लड़की  पर  अपना  कुछ  अधिकार  नहीं  बाबा ,
ये   कथा -कहानी   किस्से  हैं , कुछ  भी  तो  सार  नहीं  बाबा ,
बस  उस  पगली  लड़की  के  संग   जीना  फुलवारी  लगता  है ,
तब  एक  पगली  लड़की  के  बिन  जीना  गद्दारी  लगता  है ,
और  उस  पगली  लड़की  के   बिन  मरना  भी  भारी  लगता  है .

डॉ कुमार विशवास की कलम से -

Friday 17 June 2016

न तो वह बाबरी मस्जिद थी और ना बाबर ने मंदिर तोड़ा था - किशोर कुणाल

कथित बाबरी मस्जिद पर लिखी किताब के साथ किशोर कुणाल
बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि विवाद से जुड़ा कोई व्यक्ति जो ख़ुद को सनातनी हिन्दू मानता हो और  विवादित स्थान पर राम के मंदिर का निर्माण चाहता हो ताकि वो सरयू में स्नान कर वहां पूजापाठ कर सके। वह पांच छह साल के गहन अध्ययन के बाद, तमाम दस्तावेज़ों को जुटाते हुए अपने हाथों से 700 पन्ने की किताब लिखे और उस किताब में बाबर को अच्छा बताया जाए और कहा जाए कि जो मस्जिद गिराई गई वह बाबरी मस्जिद नहीं थी तो उस पढ़ते हुए आप तय नहीं कर पाते कि यह किताब बाबरी मस्जिद ध्वंस की सियासत पर तमाचा है या उन भोले लोगों पर जो नेताओं के दावों को इतिहास समझ लेते हैं।

Ayodhya Revisited नाम से किशोर कुणाल ने जो किताब लिखी है उसकी मंशा साफ है। वहां मंदिर बने लेकिन अयोध्या को लेकर जो ग़लत ऐतिहासिक व्याख्या हो रही है वह भी न हो। लेकिन क्या एक किताब चाहे वो सही ही क्यों न हो, दशकों तक बाबरी मस्जिद के नाम पर फैलाई गई ज़हर का असर कम कर सकती है? बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद सिर्फ मंदिर-मस्जिद का विवाद नहीं है। इसके बहाने भारत के नागरिकों के एक बड़े हिस्से को बाबर से जोड़ कर मुल्क के प्रति उनकी निष्ठा और संवैधानिक दावेदारियों को खारिज करने का प्रयास किया गया है। अच्छा हुआ यह किताब किसी मार्क्सवादी इतिहासकार ने नहीं लिखी है। किशोर कुणाल ने लिखी है जिनकी सादगी, धार्मिकता और विद्वता पर विश्व हिन्दू परिषद और संघ परिवार के लोग भी संदेह नहीं कर सकते। इस किताब को बारीकी से पढ़ा जाना चाहिए। मैं आपके लिए सिर्फ सार रूप पेश कर रहा हूं। यह चेतावनी ज़रूरी है क्योंकि इस मसले पर कोई पढ़ना नहीं चाहता, सब लड़ना चाहते हैं।

 

Ayodhya Revisited का फॉर्वर्ड सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायधीश जस्टिस जे बी पटनायक ने लिखा है। इसके तीन चैप्टरों के मुखड़े इस विवाद के न जाने कितने मुखौटे उतार देते हैं। इसके तीसरे चैप्टर का मुखड़ा है  - Babur was not a religious fanatic,  चौथे चैप्टर का मुखड़ा है - Babur had no role either in the demolition of any temple  at Ayodhya or in the construction of mosque और पांचवे चैप्टर का मुखड़ा - Inscriptions on the structure were fake and fictitious.




मार्क्सवादी इतिहासकार स्व. राम शरण शर्मा के विद्यार्थी रहे किशोर कुणाल का कहना है कि इस विवाद में इतिहास का बहुत नुकसान हुआ है। वह इस ज़हरीले विवाद से अयोध्या के इतिहास को बचाना चाहते हैं। उनके अनुसार मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी सही साक्ष्य नहीं रखे और सही व्याख्या नहीं की है। बाकी मंदिर समर्थकों ने तो ख़ैर इतिहास को इतिहास ही नहीं समझा। झूठे तथ्यों को ऐतिहासिक बताने की दावेदारी करते रहे।

'मैं पिछले दो दशकों से ऐतिहासिक तथ्यों की झूठी और भ्रामक व्याख्या के कारण अयोध्या के वास्तविक इतिहास की मौत का मूक दर्शक बना हुआ हूं। नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों में हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच एक वार्ताकार के रूप में मैंने अपना कर्तव्य निष्ठा के साथ निभाया लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में चल रही सुनवाई के आख़िरी चरणों में मुझे लगा कि अयोध्या विवाद में हस्तक्षेप करना चाहिए और मैंने इस थीसीस को तैयार किया।'

किशोर कुणाल ने अपनी किताब में बताया है कि कैसे विश्व हिन्दू परिषद के इतिहासकारों ने बहादुर शाह आलमगीर की अनाम बेटी की लिखित किताब बहादुर शाही को साक्ष्य बनाने का प्रयास किया। जबकि औरंगज़ेब के बेटे बहादुर शाह को कभी आलमगीर का ख़िताब ही नहीं मिला। बहादुर शाह की एक बेटी थी जो बहुत पहले मर चुकी थी। मिर्ज़ा जान इस किताब के बारे में दावा करता है कि उसने इस किताब के कुछ अंश सुलेमान शिकोह के बेटे की लाइब्रेरी में रखी एक किताब से लिए हैं। कुणाल दावा करते हैं कि सुलेमान शिकोह का कोई बेटा ही नहीं था। मिर्जा जान ने 1855 में एक किताब लिखी है वो इतनी भड़काऊ थी कि उसे ब्रिटिश हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था। कुणाल बराबरी से विश्व हिन्दू परिषद और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गड़बड़ियों को उजागर करते हैं।

कथित बाबरी मस्जिद ढहाते कारसेवक  
उन्होंने बताया है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों का दावा ग़लत था कि दशरथ जातक में राम सीता को भाई बहन बताया गया है। कुणाल साक्ष्यों को रखते हुए कहते हैं कि शुरूआती बौद्ध टेक्स्ट में राम को आदर के साथ याद किया गया है। कहीं अनादर नहीं हुआ है। उनका कहना है कि जातक कथाओं के गाथा हिस्से के बारीक अध्ययन से साबित होता है कि राम के बारे में कुछ आपत्तिजनक नहीं है। उन्होंने बी एन पांडे के कुछ दावों को भी चुनौती दी है। कुणाल ने मार्क्सवादी इतिहासकारों की आलोचना स्थापित इतिहासकार कहकर की है जिन्होंने असहमति या सत्य के के किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया । कुणाल ने विश्व हिन्दू परिषद के समर्थक इतिहासकारों के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है कि 'मैं इन्हें राष्ट्रवादी या रूढ़ीवादी इतिहासकार की जगह उत्साही इतिहासकार कहना पसंद करता हूं।' वैसे इस किताब में कार्ल मार्क्स का भी ज़िक्र है और वह भी अच्छे संदर्भ में !

कुणाल बताते हैं कि सोमनाथ में मंदिर तोड़ने और लूट पाट के बाद भी वहां के शैव पशुपताचार्या ने मस्जिद का निर्माण करवाया बल्कि आस पास दुकानें भी बनवाईं ताकि व्यापार और हज के लिए जाने वाले मुसलमानों को दिक्कत न हो। वहीं वे कहते हैं कि कई पाठकों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि 1949 में निर्जन मस्जिद में राम लला की मूर्ति रखने वाले बाबा अभिरामदासजी को 1955 में बाराबंकी के एक मुस्लिम ज़मींदार क़य्यूम किदवई ने 50 एकड़ ज़मीन दान दी थी। कुणाल बताते हैं कि इन विवादों से स्थानीय स्तर पर दोनों समुदायों में दूरी नहीं बढ़ी। वे एक दूसरे से अलग-थलग नहीं हुए।

'लोगों को जानकर हैरानी होगी कि तथाकथित बाबरी मस्जिद का 240 साल तक किसी भी टेक्स्ट यानी किताब में ज़िक्र नहीं आता है।' कुणाल बार बार 'तथाकथित बाबरी मस्जिद' कहते हैं जिसे हमारी राजनीतिक चेतना में बाबरी मस्जिद के नाम से ठूंस दिया गया है और जिसके नाम पर न जाने कितने लोग एक दूसरे को मार बैठे। कुणाल के पास तमाम दस्तावेज़ हैं जिनका यहां जिक्र करना मुमकिन नहीं है। उनका दावा है कि मस्जिद के भीतर जिस शिलालेख के मिलने का दावा किया जाता है वह फर्ज़ी हैं। इस बात को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस एस यू ख़ान ने भी स्वीकार किया था। हालांकि इस मामले में अंतिम कानूनी प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है।

'उस तथाकथित बाबरी मस्जिद के निर्माण में बाबर की कोई भूमिका नहीं थी।' कुणाल की किताब का बाबर धर्मांध नहीं था। पूरे सल्तनत काल और मुगल काल के बड़े हिस्से में अयोध्या के तीन बड़े हिन्दू धार्मिक स्थल सुरक्षित रहे। विवादित स्थल पर मंदिर का तोड़ना औरंगजेब के समय हुआ न कि बाबर के समय। कुणाल के अनुसार 1813 साल में एक शिया धर्म गुरू ने शिलालेख में हेरफेर किया था जिसके अनुसार बाबर के कहने पर मीर बाक़ी ने ये मस्जिद बनाई थी। कुणाल इस शिलालेख को फर्ज़ी बताते हैं। वे इस किताब में हर बात के समर्थन में प्रमाण देते चलते हैं।

इस किताब को पढ़कर लग रहा है कि लेखक मंदिर निर्माण के हिन्दूवादी संगठनों के दोहरेपन से भी खिन्न हैं । कुणाल को लगता है कि इनकी दिलचस्पी मंदिर में कम राजनीति में ज़्यादा है। किशोर कुणाल का दावा है कि इस किताब में मंदिर निर्माण के पक्ष में सही तथ्यों को पेश किया है। उनकी कोशिश अयोध्या के इतिहास को बचाने की भी है।

मंदिर निर्माण की धारा से जुड़े किसी व्यक्ति का यह कहना कि 'बाबर निर्दोष था। उसके खिलाफ उस अपराध के लिए दशकों तक नफ़रत फैलाई गई जो उसने की ही नहीं' कोई मामूली बात नहीं है। कुणाल बाबर को उदारवादी और बेख़ौफ़ योद्धा कहते हैं। हम आप जानते हैं कि मौजूदा राजनीति में बाबर का नाम लेते ही किस किस तरह की बातें ज़हन में उभर आती हैं। क्या वे संगठन और नेता कुणाल के इन दावों को पचा पायेंगे जिन्होंने 'बाबरी की औलादों' कहते हुए अनगिनत भड़काऊ तकरीरें की थीं? बाबरी मस्जिद ध्वंस के पहले और बाद में ज़माने तक पानी नहीं ख़ून बहा है।

कुणाल ने अयोध्या का बड़ा ही दिलचस्प इतिहास लिखा है। पढ़ने लायक है। कुणाल के अयोध्या में सिर्फ राम नहीं हैं, रहीम भी हैं। अयोघ्या के इतिहास को बचाने और बाबर को निर्दोष बताने में कुणाल ने अपनी ज़िंदगी के कई साल अभिलेखागारों में लगा दिये लेकिन साक्ष्यों को तोड़ने मरोड़ने वाली राजनीति इस सनातनी रामानन्दी इतिहासकार की किताब को कैसे स्वीकार करेगी। उनकी इस किताब को पढ़ते हुए यही सोच रहा हूं कि कुणाल के अनुसार बाबर ने मंदिर नहीं तोड़ा, वह बाबरी मस्जिद नहीं थी लेकिन अयोध्या के इतिहास को जिन लोगों ने ध्वस्त किया वे कौन थे बल्कि वे कौन हैं। वे आज कहां हैं और अयोध्या कहां है??

Wednesday 25 May 2016

वो फैज़ाबाद के जेल में कटी आखिरी रात, जब हिन्दुस्तान की आजादी का सपना संजोए अशफ़ाक अपनी ज़िन्दगी की आखिरी रात गुज़ार रहे थे तब उनके मन में जो चल रहा था वो इस कविता से झलक रही है| अशफ़ाक को फांसी होनी थी और अपने बुलंद इरादों को शब्दों में पिरो कर अपनी डायरी में सजा गए | राम प्रसाद बिस्मिल का ज़िक्र करके फिर से जन्म लेने की ख्वाहिश भी ज़ाहिर की और आज़ाद हिन्दुस्तान का सपना उसी आँखों में बुनकर गहरी नींद में सो गए|


जाऊँगा खाली हाथ मगर,यह दर्द साथ ही जायेगा;
जाने किस दिन हिन्दोस्तान,आजाद वतन कहलायेगा।

बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा;
ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा।।

जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ;
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ।

हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा;

जन्नत के बदले उससे, यक नया जन्म ही माँगूँगा।।

..... अशफाकुल्लाह खान 

Thursday 12 May 2016

बंगाल में किसकी सरकार

लम्बे इंतज़ार के बाद पश्चिम बंगाल के साथ देश के 5  राज्यों में विधानसभा चुनाव अंतिम चरण के मतदान के साथ बीते गुरूवार को संपन्न हो गया। पश्चिम बंगाल के चुनावी इतिहास में यह चुनाव अबतक का सबसे लम्बा चुनाव रहा जो छः चरणों में कराया गया । इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल में अब तक का न केवल सबसे निष्पक्ष था बल्कि इस चुनाव में किसी दल को न तो अपने विरोधियों को डराने का मौका मिला न ही चुनाव आयोग पर हाथ पर हाथ रखकर मूकदर्शक बने रहने का आरोप लगाने का बहाना मिला। चुनाव आयोग ने साबित कर दिया कि अगर वह चाहे तो चुनाव में धांधली मुश्किल ही बही बल्कि असंभव है। चुनाव आयोग द्वारा संपन्न कराया गया यह चुनाव सराहनीय है। 


चुनाव में मुक़ाबला सीधे तौर पर वर्त्तमान में सत्ता विराजमान दीदी की तृणमूल और इतिहास में बंगाल के सत्ताधारी वामदल-कॉंग्रेस के गठबंधन के बीच है। लेकिन सवाल है कि इस चुनाव में जीत आखिर किसकी होगी और पलड़ा किसका और किन करणों से भारी रहा?निश्चित रूप से कांग्रेस और वामपंथी दलों में तालमेल होने के बाद तृणमूल की मुश्किल बढ़ी और चुनाव में उसे कड़ी टक्कर आखिरी चरण तक झेलनी पड़ी। लेकिन तृणमूल अगर एक बार फिर ममता बनर्जी के नेतृत्व में सरकार में वापस आ जाए तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।

कमज़ोर कड़ी और मज़बूत पक्ष क्या रहा इन सबका इसपर चर्चा करना बहुत ज़रूरी है। तृणमूल कांग्रेस को शारदा चीत फण्ड घोटाला और चुनाव के ऐन मौके पर अपने बड़े नेताओं के नारद स्टिंग जैसे मुद्दों का सामना करना पड़ा। यह एक बड़ा कारण रहा जिससे उनके विरोधियों को बैठे बिठाए थली परोसा हुआ एक बड़ा चुनावी मुद्दा मिल गया। फिर कोलकाता शहर में बीचोंबीच एक फ्लाईओवर का गिर जाना तृणमूल के लिए मुश्किलों का कारण बना। इसके अलावा कई विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी नेताओं की गुटबाजी अपने चरम पर थी। लेकिन इसके बावजूद ममता अपने विरोधियों पर पूरे चुनाव में भारी दिखी। उसका कारण था नारद और शारदा का प्रभाव ग्रामीण इलाकों में न पड़ना। ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण, बिजली की अच्छी उपलब्धता, छात्राओं को साइकल और दो रुपये में एक किलो चावल जैसे कार्यक्रम का प्रभाव ग्रामीण इलाकों में व्यापक दिखा। फिर ममता बनर्जी खुद महिला मतदाताओं की पहली पसंद दिखीं। इन सबसे ऊपर तृणमूल ने पिछले पांच वर्षों  के दौरान अपने कैडर की एक ऐसी फौज तैयार की जो कांग्रेस-वाम एकता पर भारी दिखी। हालांकि कांग्रेस-वामपंथी एकता के कारण मुस्लिम मतदाताओं का वैसा झुकाव तृणमूल के प्रति नहीं था जो 2011 के चुनाव में दिखा था। मुस्लिम मतदाताओं के वोट दोनों तरफ गए। हालांकि तृणमूल को मुस्लिम मतदाताओं के वोट अधिक मिले हैं।

इधर वामपंथी-कांग्रेस ने तालमेल तो किया लेकिन केरल के चुनाव के कारण शुरू में संयुक्त सभा करने में हिचकिचाहट दिखाई। बाद में राहुल गांधी और बुढदेव भट्टाचार्य एक मंच पर आए, लेकिन तब तक मतदान के चार चरण हो चुके थे। इस गठबंधन के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इनके पास ममता बनर्जी के मुकाबले कोई एक चेहरा नहीं था जो चुनाव में युवाओं को अपनी और आकर्षित कर पाए। इसके कारण सरकार के खिलाफ तमाम मुद्दे होने के बावजूद यह अपने परंपरागत वोटों के अलावा नए मतदाताओं को जोड़ने में कमज़ोर साबित हुए।  तृणमूल के वोट बैंक में भी सेंध लगाने में कामयाब नहीं हो पाए।



वहीँ भाजपा की चर्चा से चुनावी गलियारा नदारद ही दिख रहा है। हर तरफ चर्चा में दीदी ही सबकी पसंद नज़ार आरही है। इस चुनाव में जीत या हार इस बात पर भी निर्भर करेगा कि भाजपा द्वारा 2014 के लोकसभा चुनाव में हासिल 17 प्रतिशत वोट में से ममता या विरोधी कितने अपने पाले में खिंच सकते हैं 

बहरहाल किसी की भी जीते हो या हार, कोई  भी यह शिकायत नहीं कर सकता कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए या  चुनाव में धांधली हुई। चुनाव आयोग ने यह साबित कर दिया कि कितनी भी दबंगई क्यों न हो व्यवस्था से ऊपर होना मुश्किल है ही नहीं नामुमकिन है । 

Wednesday 11 May 2016

पहाड़ में फिर से रावत सरकार

पहाड़ में फिर से रावत सरकार 

18 मार्च से मई आ गया, लेकिन उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की तमाम दलीलों से बीजेपी पीछे नहीं हटी। जिन नौ विधायकों के दम पर उसने दलील दी कि सरकार अल्पमत में आ गई है, उनकी सदस्यता तक चली गई। कोर्ट में 9 विधायक अपने आपको साबित नहीं कर पाए। कांग्रेस के ज़माने में राष्ट्रपति शासन के दुरुपयोग का विरोध करते रहने वाली बीजेपी इस बार ख़ुद फंस गई। मोदी सरकार ने जितनी भी दलीलें और धाराओं का सहारा लिया, कोर्ट में कुछ नहीं टिका। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बीजेपी इस मामले में लगातार हारते चली गई। सदन में जब विश्वासमत हुआ उसमें भी हार गई। विश्वास मत सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में कराया, यहां तक कि जब तक कोर्ट के भीतर लिफाफा नहीं खुला नतीजे के बारे में दावे तो किये जाते रहे, मगर उनकी कोई मान्यता नहीं थी। लिफाफा खुलते ही देहरादून में कांग्रेस खेमे में उत्साह बढ़ गया। हरीश रावत के पक्ष में 33 मत पड़े और बीजेपी के पक्ष में 28।

हरीश रावत को फिर से शपथ लेने की ज़रूरत नहीं है। अदालत का आदेश आते ही केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक हुई और राष्ट्रपति शासन हटाने का फ़ैसला कर लिया गया। बीजेपी ने संवैधानिकता, नैतिकता और भ्रष्टाचार के आरोपों के दम पर राष्ट्रपति शासन को हर स्तर पर जायज़ ठहराने का प्रयास किया लेकिन सहयोगी संघवाद का नारा देने वाली बीजेपी अदालत में अपनी बात साबित नहीं कर पाई। एक महीने से ज्यादा समय तक एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त तक कई स्तरों पर सार्वजनिक बहसों के ज़रिये वक्त भी बर्बाद हुई। दो-दो बार स्टिंग ऑपरेशन का मामला सामने आया, जिसमें रावत पर पैसे से सरकार बचाने के प्रयास का आरोप भी लगा। स्टिंग ऑपरेशन से जो सवाल उठे और राष्ट्रपति शासन लगाने को लेकर जो सवाल उठ रहे थे, दोनों का कोई संबंध नहीं था। लेकिन बीजेपी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये राष्ट्रपति शासन का बचाव करने का हरसंभव प्रयास करती रही। मशहूर वकील हरीश साल्वे ने जब स्टिंग ऑपरेशन का हवाला दिया तो उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कहा कि अगर राष्ट्रपति भ्रष्टाचार के आरोपों के आधार पर राज्यों में अपना शासन थोपने लगेंगे तो कोई राज्य सरकार पांच मिनट से ज्यादा नहीं चल पाएगी। बहरहाल स्टिंग ऑपरेशन के मामले की सीबीआई जांच भी करने लगी है। सब कुछ तेज़ी से हुआ मगर घूम फिर कर रावत के दरवाज़े पहुंच गया। वे अब फिर से मुख्यमंत्री हैं। तब कांग्रेस के थे अब उन्हें मायावती का शुक्रिया अदा करना पड़ रहा है। मायावती कह रही हैं कि यह फैसला सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित है। उत्तर प्रदेश में वे कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगी।

राष्ट्रपति शासन लगने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक ब्लॉग लिखा था। जिसकी पहली पंक्तियों में से एक पंक्ति यह थी कि राष्ट्रपति शासन लगाने का फ़ैसला राष्ट्रपति ने अपनी राजनीतिक समझदारी और अपने सारे रखे गए दस्तावेज़ों के आधार पर लिया। यही दलील केंद्र सरकार के वकील ने हाईकोर्ट में दी। हाईकोर्ट ने कह दिया कि
लोग ग़लत फ़ैसले ले सकते हैं, चाहे वो राष्ट्रपति हों या जज... ये कोई राजा का फ़ैसला नहीं है, जिसकी न्यायिक समीक्षा ना हो सकती हो।

केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति की मंज़ूरी के नाम पर अपने फैसले का खूब बचाव किया, जबकि प्रस्ताव तो केंद्रीय मंत्रिमंडल से पास होता है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक बार विचार के लिए भेज सकते थे। जो उन्होंने नहीं भेजा। एक बार भी सवाल नहीं किया। अगर मंत्रिमंडल से दोबारा प्रस्ताव आता तो उन्हें हां करना ही होता। सवाल यह उठ रहा है कि उन्होंने दोबारा विचार के लिए क्यों नहीं भेजा। फिर भी केंद्र सरकार अदालत और अदालत के बाहर चैनलों में यह दलील देती रही कि राष्ट्रपति ने दस्तावेज़ देख लिये हैं। उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला इस मामले में ऐतिहासिक है कि उसने केंद्र सरकार के उस केंद्रीय तर्क को ही धराशायी कर दिया जिसके सहारे राष्ट्रपति शासन का बचाव किया जा रहा था। 'ये कोई राजा का फैसला नहीं है, जिसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।' ये पंक्ति आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक इतिहास में ज़माने तक गूंजेगी। जब भी कोई राष्ट्रपति राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रस्ताव पर दस्तख़त करेंगे एक बार इसे याद करेंगे। उनके सलाहकार याद दिलायेंगे। आप राजा नहीं हैं। आप जो फैसला ले रहे हैं उसकी अदालत में समीक्षा हो सकती है। विपक्ष के नेता और संविधान के जानकार सब राष्ट्रपति पर भी सवाल उठा रहे हैं। पब्लिक में आकर राष्ट्रपति अपना बचाव नहीं कर सकते मगर पब्लिक तो सवाल करेगी। राष्ट्रपति ही नहीं राज्यपाल की भूमिका की भी समीक्षा होनी चाहिए। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राज्यपाल के बारे में भी कहा कि वो निष्पक्ष होता है। केंद्र का एजेंट नहीं होता।

आप संविधान के जानकार और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट राजू रामचंद्रन हैं। आप कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट के सलाहकार भी रहे हैं। राजू रामचंद्रन का कहना है कि इस पूरे मामले में राष्ट्रपति की भूमिका से निराश हैं। राष्ट्रपति को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल करना चाहिए था। इस मामले में उनकी भूमिका भले ही सीमित हो। अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के मामले में उन्होंने सवाल पूछे थे, लेकिन उत्तराखंड के मामले में उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाए जबकि फ्लोर टेस्ट होने वाला था। आप वाजपेयी सरकार में अटॉर्नी जनरल रहे सोली सोराबजी हैं। जाने माने संविधानविद सोराबजी ने कहा कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले में मोदी सरकार को जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए थी। इससे ये संदेश गया कि केंद्र सरकार फ़्लोर टेस्ट नहीं होने देना चाहती। सोराबजी रामचंद्रन की तरह सख़्त नहीं हैं, मगर कहा कि कोई कह सकता है कि राष्ट्रपति को सरकार के पास फाइल वापस भेज देनी चाहिए थी, लेकिन क्या होता अगर सरकार फाइल वापस भेज देती। राष्ट्रपति को दस्तख़त करने पड़ते... राष्ट्रपति ने कुछ भी ग़लत नहीं किया... कोर्ट अब एक्टिव हैं इसलिए सरकार को सावधानी से काम करना चाहिए था।

1994 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एस आर बोम्मई केस में फैसला दिया कि अतिविशिष्ट परिस्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होना चाहिए। केंद्र सरकार के राजनीतिक हित के लिए कभी नहीं होना चाहिए। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने महीने भर से कम समय में सुनवाई कर फैसला दिया। अपने आप में इतिहास है। वो भी पुरानी सरकार के रहते फैसला दिया है। ऐसा नहीं कि दूसरी सरकार बन गई या चुनाव होकर कोई और सरकार आ गई फिर फैसला आया। इसलिए उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला और बाद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला अब पढ़ाया भी जाएगा। पर इसके लिए कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस आर बोम्मई का शुक्रगुज़ार होना चाहिए जो अपनी सरकार की बर्खास्तगी के लिए अदालती लड़ाई लड़े। ये और बात है कि उन्हें इस लड़ाई का लाभ नहीं मिला। जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब उनकी सरकार जा चुकी थी। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार ने बोम्मई की सरकार बर्खास्त की थी। आज कांग्रेस को बोम्मई की उस लड़ाई से लाभ हुआ है। हरीश रावत की सरकार बच गई है। मगर इस लड़ाई में हरीश रावत ने भी जोड़ दिया। क्या विडंबना है। राष्ट्रपति शासन के मामले में कांग्रेस नैतिक रूप से किसी बहस में टिक नहीं पाती है लेकिन उसने उत्तराखंड के बहाने ऐसी बहसों के लिए नैतिक बल हासिल कर लिया है। हरीश रावत भी इस मामले में संवैधानिक इतिहास का हिस्सा बन गए। राहुल गांधी ने कहा कि वो गलत कर रहे थे। हम सही कर रहे थे। लोकतंत्र की जीत हुई है।

इस साल 26 जनवरी के दिन अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। कांग्रेस ने इसे भी चुनौती दी मगर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में सुनवाई चलती रही और अरुणाचल प्रदेश में नई सरकार बन गई। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला अभी तक नहीं आया है। हमने राष्ट्रपति शासन के बारे में देश के कानून मंत्री सदानंद गौड़ा के बयान को गूगल में खूब सर्च किया। हो सकता है मुझे न मिला हो इसलिए दावे से नहीं कह रहा मगर कानून मंत्री को छोड़ बाकी तमाम नेताओं के बयान ज़रूर मिले। क्या ये अजीब नहीं है कि इतनी बड़ी संवैधानिक बहस हो गई और कानून मंत्री का एक ट्वीट तक नहीं है। क्या ये मामला राजनीतिक ही था। सदानंद गौड़ा ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सॉयल हेल्थ कार्ड और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ पर ट्वीट किया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का ब्लॉग मिला. जिसे उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा था। उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के एम जोसेफ़ और जस्टिस वी के विष्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले में केंद्र सरकार को निष्पक्ष होना चाहिए लेकिन वो प्राइवेट पार्टी जैसा व्यवहार कर रही है। हम आहत हैं कि केंद्र सरकार ऐसा व्यवहार कर रही है। आप कोर्ट के साथ ऐसा खेल खेलने की कैसे सोच सकते हैं।

चीफ जस्टिस के एम जोसेफ़ का अब तबादला हो चुका है। लेकिन उनकी बेंच ने राष्ट्रपति शासन के मामने में एक पैमाना तय कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी उसी दिशा में रहा है। इस फैसले ने कई तरह के आरोपों और पार्टी के भीतर अपने विरोधियों से घिरे हरीश रावत को नया जीवनदान दिया है।

हरीश रावत के लिए ये एक ऐसी सियासी लड़ाई साबित हुई जिसमें उन्होंने एक ही वार में मोदी सरकार की कोशिशों और पार्टी में अपने सियासी विरोधियों को चित कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत के साथ नौ विधायक ना इधर के रहे, ना उधर के। कांग्रेस के इन बाग़ियों के आधार पर ही बीजेपी ने राज्य में हरीश रावत सरकार को पटखनी देने की योजना बनाई थी। बाग़ियों ने हरीश रावत सरकार को बर्ख़ास्त करने के लिए राज्यपाल को दिए ख़त में बीजेपी के लेटर पैड पर हस्ताक्षर किए। वो बीजेपी के नेताओं के साथ विमान से देहरादून से दिल्ली पहुंचे और बीजेपी के नेताओं के साथ बसों में कभी गुड़गांव तो कभी जयपुर में घूमते रहे। फाइव स्टार होटलों में ठहरे। दिल्ली में हरीश रावत के ख़िलाफ़ स्टिंग जारी कर उन पर भ्रष्टाचार का आरोप भी लगाया, लेकिन कुछ काम नहीं आया। विधानसभा में भी हार का मुंह देखना पड़ा और उत्तराखंड हाइकोर्ट में भी। उत्तराखंड हाइकोर्ट ने इन बाग़ियों की याचिका खारिज कर उनकी विधायकी रद्द करने के स्पीकर के फ़ैसले पर मुहर लगा दी। हाइकोर्ट ने कहा कि उन विधायकों ने अपने काम से ख़ुद ही राजनीतिक दल से अपनी सदस्यता छोड़ देने का काम किया है। अब इन बाग़ियों के सामने विकल्प बहुत ही कम बचे हैं। कई के सियासी करियर संकट में पड़ गए हैं। ना कांग्रेस में वापसी करते बनता है, ना बीजेपी में शामिल होते। हरीश रावत की जीत के बाद बीजेपी के लिए भी उनकी कोई ख़ास अहमियत नहीं रह गई है।

1993 में पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ को वहां की सुप्रीम कोर्ट ने फिर से बहाल कर दिया था। जिसे राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान ने बर्ख़ास्त कर दिया था। दोनों मुल्कों में वो पहली सरकार थी जो राष्ट्रपति के द्वारा बर्ख़ास्तगी के बाद बहाल हुई थी। फ़ैसले के बाद नवाज़ शरीफ के एक मंत्री ने कहा था कि न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे। 18 मार्च से 11 मई आ गया। उत्तराखंड जहां से चला था वहीं पहुंच गया। इस उत्तराखंड के कारण इतना समय गया कि समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन एक दिन राज्य सभा में झुंझला गईं। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के कारण कई ज़रूरी मसलों पर चर्चा नहीं हो रही है।

(रवीश कुमार)

Tuesday 10 May 2016

आदित्य काण्ड के आरोपी को रविश कुमार का खुला पत्र


प्यारे रॉकी यादव,
अभी अदालत से साबित होना बाक़ी है, इसलिए हत्यारे रॉकी यादव नहीं लिख रहा। अदालत के फ़ैसले का इंतज़ार करूंगा और तब तक कथित लिखूंगा, सो, तुमको तब तक प्यारे लिखूंगा, ताकि तुम जैसे नौजवानों को अहसास हो कि आदित्य भी किसी का प्यारा था।
यह जो तुम टीवी पर बोल रहे हो कि तुम दिल्ली में थे, तुमने गोली नहीं चलाई। इस तरह के बयान तुम्हारे जैसे कथित आरोपी देते रहे हैं। फ़िल्मों में ऐसे संवाद तो आम हैं और इस आधार पर हत्यारे को निर्दोष साबित करने का दावा करने वाले फ़र्ज़ी घाघ वकील भी आम हैं। पुलिस की जांच तुम्हारे बयान से अलग है। पुलिस का कहना है कि तुमने जुर्म कबूल किया है और जिस हथियार से हत्या हुई है, उसे बरामद किया गया है, इसलिए अदालत का फ़ैसला आने तक तुम आरोपी हो, हत्यारे नहीं।
तुम्हारी मां ठीक ही कह रही होंगी कि तुम उस तरह के लड़के नहीं हो। आजकल फ़िल्मों की तरह राजनीति में मांओं की नौटंकी हम लोग रोज़ देख रहे हैं। राजनीति की मांओं को समझना चाहिए कि उनके आंसू जावेद अख़्तर साहब वाली मांओं के आंसू जैसे नहीं हैं, न हो सकते हैं। आजकल कई मंत्री और विधायक हर बात को 'मैं भी एक मां हूं' की नौटंकी से ढंकने लगी हैं। यह सबसे बड़ा झूठ है कि एक मां दूसरी मां को जानती है। सत्य यह है कि रॉकी की मां और आदित्य की मां के दर्द में बहुत फ़र्क है। रोहित वेमुला की मां और किसी मंत्री के मां होने में बहुत अंतर है। तुम्हारी मां जेल से लौट आने की आस लगा सकती है। आदित्य की मां आस नहीं लगा सकती है, इसलिए अपनी मां से कहो कि 'मां मां' बंद करे।तुम्हारी मां अगर मांओं का दर्द समझतीं तो तुम्हें लाखों रुपये का रिवॉल्वर लेने नहीं देती। मांओं का सपना बेटों को रिवॉल्वर देना नहीं होता है। बंदूक तो बंदूक, तुम्हारा नाम भी मोहल्ले के छलिया जैसा है। ख़ैर, इसका घटना से कोई ताल्लुक़ नहीं है। पुलिस कहती है कि तुम्हारे नाम पर एक करोड़ की कार है। 20 की उम्र में तुम एक करोड़ की कार चलाते हो! ज़ाहिर है तुम्हारी मां न तो तुम्हें एक अच्छा लड़का बना रही थी, न दूसरी माताओं के बारे में सोच रही थी। तुम्हारे संगी-साथी के बारे में जानकारी से भी पता चलेगा कि तुम किनकी सोहबत में उठते-बैठते रहे हो। तुम्हें रिवॉल्वर का लाइसेंस दिलवाने में किसने मदद की। सुना है कि कई दलों के राजनेताओं के पुत्र तुम्हारे मित्र हैं। पैसा है, तो कौन मित्र नहीं होगा तुम्हारा।
ज़ाहिर है, तुम्हारी मां ने तुम्हें अच्छा बेटा बनने के लिए एक करोड़ की कार और लाखों की रिवॉल्वर नहीं दी होगी। तुम अच्छे होते तो रिवॉल्वर लेकर ऐसी तस्वीर नहीं खिंचाते। कोशिश तो तुम्हारी ओलिम्पियन जैसे दिखने की है, मगर लग नहीं रहे हो। रॉकी, तुम जिस राज्य के छुटभैया हीरो हो, मैं वहीं से मैट्रिक पास हूं। तुम्हारे जैसे अनेक रॉकी के पापा विधायक हैं, ठेकेदार हैं, पुलिस में हैं। हर दल के ख़ानदानों में तुम जैसे हैं। ऐसे हीरो को हम 'टिनहइया' हीरो कहते हैं - मतलब सड़कछाप।
हमारी राजनीति में ये जो बड़ी गाड़ियां आई हैं, उनसे बहुतों का दिमाग़ ख़राब हुआ है। सड़क पर इन गाड़ियों को बचाने में हर जगह लोग ब्रेक लगाकर लोगों को गरियाते मिल जाते हैं। दिल्ली में तो रोज़ देखता हूं। लोग कार से उतरकर मारपीट करते रहते हैं। शीशा नीचे कर धमकाते रहते हैं। क्या पता तुम भी वैसे ही हो। मैं क़ानूनी फ़ैसला नहीं कर रहा। तुम्हारी हरकतों का सामाजिक विश्लेषण कर रहा हूं।
मैं बिल्कुल समझता हूं कि रोड रेज एक गंभीर मनोरोग है। कई घटनाएं दर्ज हैं, जिनमें हत्या भी हुई है। तुम्हें दिल्ली में डाक्टर नारंग की हत्या का मामला याद ही होगा। कई लोगों की तरह तुम्हें भी ग़ुस्सा आया होगा। तुम बर्दाश्त नहीं कर सके होगे कि पांच लाख की स्विफ्ट कार एक करोड़ की रेंज रोवर कार को कैसे ओवरटेक कर सकती है। बेटा रॉकी, कार चलाना एक हुनर भी है। मोपेड वाला भी मात दे सकता है। इतना समझते तो ओवरटेक के सदमे को बर्दाश्त कर लेते और आदित्य को जाने देते। मगर तुम्हें 'रेज' आया, यानी ग़ुस्सा आया।
तुम्हें रोड रेज जैसे मनोरोग की छूट नहीं मिलनी चाहिए। तुम एक राजनीतिक ख़ानदान से आते हो। पिता आरजेडी के नेता हैं और माता जेडीयू की विधायक। सुना है, पिता बाहुबली कहलाने की योग्यता भी रखते हैं, इसलिए तुम्हें लगता होगा कि घर में ही लालू यादव और नीतीश कुमार हैं। तुम्हीं नहीं, बिहार में तमाम दलों के कई विधायक पुत्रों का यही हाल हो सकता है। कुछ पुत्र लोग सज्जन भी होते हैं, मगर ज़्यादातर रॉकी और विकी की मानसिकता से आगे निकल नहीं पाते। मेरा ही एक क्लासमेट है, जिसके पिता कई साल मंत्री रहे। शायद अब भी होंगे, मगर वह कभी बताता ही नहीं था कि पिता मंत्री हैं। साइकिल से कॉलेज आ जाता था। तो रॉकी, तुम्हारे भीतर सत्ता का ग़ुरूर भी आया होगा। उसी के नशे में तुमने कार रोकी और झगड़ा किया। तुम्हारा ग़ुस्सा सातवें आसमान पर गया होगा और तुमने कथित रूप से गोली मार दी, इसलिए तुम्हारा मामला अलग है।
बिहार के मुख्यमंत्री से अपील करता हूं कि दो महीने के अंदर इस मामले को अंजाम पर पहुंचाकर दिखाएं। तुम्हारी एक करोड़ की कार कबाड़ में बेचकर उसके पैसे से किसी गांव में कुआं खुदवा दें। जिस राजनीति के कारण तुम्हारा हौसला बढ़ गया था, आज वही राजनीति यह देखेगी कि तुम्हारे मामले में जल्दी फ़ैसला आए। ऐसा होने से बिहार में नेताओं के बहुत से रॉकी बच जाएंगे, वे रास्ते पर आ जाएंगे। आदित्य की हत्या का तुम्हारे जेल जाने से ज़्यादा बड़ा इंसाफ़ यह होगा। तुम्हारी माता की सदस्यता रद्द कर किसी ढंग के युवा को एमएलसी बनाएं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या बिहार विधानसभा के स्पीकर को सभी दलों के विधायकों और उनके निकटतम परिवारों के लिए दो-दिवसीय सम्मेलन बुलाना चाहिए, जहां सदस्य से लेकर ड्राइवर तक का सामाजिक प्रशिक्षण दिया जाए। बताने के लिए कि विधायक और परिवार के बीच किस तरह के संबंध होने चाहिए। किस तरह विधायक का सार्वजनिक आचरण परिवार को बदनाम कर सकता है और किस तरह परिवार का आचरण विधायक को। सदस्यों से बड़ी गाड़ियों की तमाम जानकारी मांगी जाए और पूछा जाए कि आपके अलावा परिवार के कितने सदस्यों के पास ऐसी गाड़ी है। सदस्यों को बताया जाए कि कार जब किसी आम नागरिक की कार से टकरा जाए या कोई ओवरटेक कर ले तो कैसे बर्ताव करना है। मंत्री या विधायक की पंजीकृत कार के भीतर एक संदेश चिपकाया जाना चाहिए कि यह विधायक की कार है। कार विधायक नहीं है। ड्राइवर और परिवार के सदस्य औकात में रहें।
गया पुलिस की एसएसपी को बधाई, लेकिन एक मामले में गिरफ़्तारी से कुछ नहीं होने वाला। नौजवान एसएसपी को भी ऐसे गाड़ीवानों का शिविर लगाकर बताना चाहिए कि यह कार, जो आपने ख़रीदी है, वह देखने में बड़ी है, मगर इसमें बैठकर आप कानून से बड़े नहीं हो जाते। छोटी कारों, साइकिल सवारों, रिक्शा वालों और पैदल यात्रियों का सम्मान करना सीखें।

तुम्हारे राज्य का एक नागरिक
रवीश कुमार

उत्तराखंड में सियासी घमासान

उत्तराखंड में पिछले 52 दिनों से चल रहे सियासी घमासान के बाद आज सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए अपनी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी और सियासी गलियारे से ख़बरें आनी शुरू हो  गई है की पहाड़ के चहेते 'हरदा' की अगुवाई में कांग्रेस की जीत तय है अब महज़ औपचारिक तौर पर कल सुप्रीम कोर्ट में बंद लिफ़ाफ़े से नतीजे खुलेंगे और ऐलान किया जाएगा। 
किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन को अचानक से लगाया जाना वो भी महज़ एक दिन पहले जब मौजूदा सरकार को अपना विश्वास साबित करना था यह लोकतंत्र में किसी आपदा से काम नहीं था। उत्तराखंड में उच्च न्यायलय द्वारा राज्य से राष्ट्रपति शासन हटाया जाता है तो चंद घंटे बाद सर्वोच्च न्यायलय फिर से राज्य को राष्ट्रपति के अधीन लाकर रख देता है। एक बार विश्वास मात के  के लिए  राष्ट्रपति शाशन जो उम्मीद तह अब सर 24घंटे ही रहेगा। कल सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राज्य में सरकार का गठन फिर से हो जायेगा। ऐसे कयास लागए जा रहे हैं।

पिछले साढ़े सात सप्ताह से उत्तराखंड की राजनीति में बहुत उथल पुथल देखनेको मिला । पहले सदन की कार्यवाही के दौरान कांग्रेस के ९ विधायक बाग़ी हो गए और सरकार के खिलाफ चले गए तो अध्यक्ष ने उन सबकी सदस्यता रद्द करदी। ऐसे में आंकड़ा विधान सभा का 70 से घटकर 61 हो गया और कांग्रेस के खाते में 36 में से अब 27 विधायक बचे। फिर कोर्ट में मामला पहुंचा और राष्ट्रपति शासन का लगाया जाना और फिर विश्वास मत पर राजनीतिक उठापटक। सब एक  फ़िल्मी  की स्क्रिप्ट की तरह ही थी। 

आइए देखते हैं क्या हुआ इन 52 दिनों में :-

Ø  18 मार्च: कांग्रेस के 36 विधायकों में से नौ बागी वित्त विधेयक पर मतदान के समय भारतीय जनता पार्टी के विधायकों के साथ नजर आए। कांग्रेस के बागी विधायकों और भाजपा के 27 विधायकों ने राज्यपाल केके पॉल से मुलाकात की और हरीश रावत सरकार को भंग करने की मांग की।

Ø  19 मार्च: मुख्यमंत्री रावत की राज्यपाल से मुलाकात और बहुमत होने का दावा। राज्यपाल ने 28 मार्च तक बहुमत साबित करने को कहा।

Ø  21 मार्च: कांग्रेस की बागियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू, पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा छह साल के लिए पार्टी से बाहर।

Ø  22 मार्च: कांग्रेस और भाजपा की राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात। अमित शाह से दिल्ली में मिले भाजपा विधायक।

Ø  26 मार्च: कांग्रेस के बागी विधायक हरक सिंह रावत ने एक कथित स्टिंग की सीडी जारी की और मुख्यमंत्री हरीश रावत पर खरीद-फरोख्त का आरोप। हरीश रावत ने सीडी को भ्रामक प्रचार बताया।

Ø  27 मार्च: शक्ति परीक्षण के ठीक एक दिन पहले राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू। कांग्रेस के नौ बागी विधायक अयोग्य घोषित। केंद्र ने राज्य में दो सलाहाकार नियुक्त किए।

Ø  28 मार्च: राष्ट्रपति शासन को हाईकोर्ट में चुनौती, हरीश रावत का सरकार बनाने का दावा पेश।

Ø  29 मार्च: नैतीताल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने सदन में शक्ति परीक्षण का फैसला सुनाया, इसके लिए 31 मार्च की तिथि तय।

Ø  30 मार्च: डबल बैंच ने शक्ति परीक्षण पर रोक लगाई। केंद्र ने उत्तराखंड में खर्च के लिए अध्यादेश को दी मंजूरी।

Ø  01 अप्रेल: नैनीताल हाईकोर्ट ने केन्द्र को पांच अप्रेल तक जवाब देने को कहा।

Ø  07 अप्रेल: भाजपा के राज्य में सरकार बनाने के प्रयास पर हाईकोर्ट ने केन्द्र को चेताया।

Ø  18 अप्रेल: हाईकोर्ट की डबल बैंच ने केंद्र से पूछा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन क्यों?

Ø  19 अप्रेल: कोर्ट की केन्द्र पर तल्ख टिप्पणी। कहा, यदि भ्रष्टाचार पर सरकार गिरने लगी तो कोई भी सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी

Ø  20 अप्रेल: कोर्ट ने कहा राष्ट्रपति भी गलत हो सकते हैं। उत्तराखंड की सियासत में भूचाल लाने वाले पुलिस के घोड़े शक्तिमान की मौत।

Ø  21 अप्रेल: नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाया, 29 को बहुमत सिद्ध करने के आदेश।

Ø  22 अप्रेल: सुप्रीम कोर्ट की नैनीताल हाईकोर्ट के फैसले पर 27 अप्रेल तक रोक, इस बीच हरीश रावत ने 25 घंटे में दो कैबिनेट कीं और 15 बड़े फैसले लिए।

Ø  25 अप्रेल: उत्तराखंड पर संसद में संग्राम।

Ø  26 अप्रेल: राज्यसभा में भी हंगामा। 

Ø  27 अप्रेल: सुप्रीम कोर्ट की शक्ति परीक्षण पर रोक, 29 अप्रेल को शक्ति परीक्षण नहीं होने देने का फैसला सुनाया।

Ø  29 अप्रेल: हरीश रावत की स्टिंग सीडी की सीबीआई जांच का मामला।

Ø  03 मई: सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान राज्य में शक्ति परीक्षण के आसार जताए, केंद्र से मांगा जवाब। 

Ø  06 मई: सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा में 10 मई को फ्लोर टेस्ट का फैसला सुनाया। 

Ø  09 मई: बागी विधायकों को विशवास मत डालने की अनुमति नहीं। बागी विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट में दावा पेश किया, वहाँ से भी फटकार मिली । 
Ø 10 मई: उत्तराखंड विधान  विशवास मत पूरा। सुप्रीम कोर्ट 11 मई को नतीजों का ऐलान करेगी।